Monday, 7 September 2015

ek ghazal

हौसला फिर कहीं से पाएं हैं
देर के बाद मुस्कुराएं हैं |
हाथ अपने जला के आएं हैं
पर दीये हमने ही जलाएं हैं |
नाख़ुदा क्या गुमान करता है
हमने कितने ख़ुदा बनायें हैं |
जिनके बातों से फूल झरते हैं
उनके खंज़र भी आजमाएं हैं |
क्यों अँधेरा ये टल नहीं जाता
सोच में घुल रही शमाएँ हैं |
तीरगी से है दिल बहल जाता
उनके गेसू हैं या घटाएं हैं
@sushant
अगर तुम्हें
नहीं दिखती मुझमे
काम की बातें
तो यह सिर्फ मेरा दोष
नहीं
यह भी सम्भव है
कि समाप्त हो चुकी हों
तुम्हारे भीतर की सम्भावनाये ।
अगर बार बार की असफलता
तुम्हे झकझोर नहीं देती
नींद से नहीं जगा देती
तो मान लो कि
तुमने मान ली है
हार ।
अगर मैं तुम्हें
मैं ही नज़र नहीं आता
तो खुद को देखो
शायद तुम खुद को
तुम ही नज़र नहीं आओगे
याद दावा नहीं
सलाह है
सबके ऊपर
अल्लाह है । ।
@सुशांत

Tuesday, 18 August 2015

ओ तथागत !

भ्रमण को निकले तथागत
जरा देखी रोग देखा
खिन्न मन आगे बढ़े कुछ
मृत्यु  देखी योग देखा

दृश्य ने झकझोर डाला
राजसुत के पूत मन को
छोड़कर धन, पुत्र, वामा
तब तथागत चले वन को

पर भ्रमण में और आगे
जो भी था उनको न दीखा
कल मुझे दिख गया वो
जो था नहीं दिखने सरीखा ।

मैंने कल देखी - ग़रीबी
पीत पट लिपटी हुई वह
गोद में मरियल शिशु ले
सहमकर सिमटी हुई वह-

हाथ के झोले में थी कुछ
मिली बासी  पूरियां
भाल पर सिन्दूर भूषन
कांच की दो चूड़ियाँ

रंग काला कोयले सा
बाल उजले हो चले थे
दांत तो मौजूद थे पर
गाल पिचके पोपले थे

स्तनों में मुह लगा वह
दूध कैसे पा रहा था
लग रहा था हड्डियों का
रस निचोड़ा जा रहा था

डरी सी वह मरी सी वह
आँख में पानी नहीं
फिर भी जो जिजीविषा थी
क्या कहूँ सानी नहीं

फटी एड़ी कह रही थी
ठोकरों की वह कहानी
पांव के ऊपर नहीं थी
चप्पलों की भी निशानी

हँस रही थी मलिन वस्त्रा
दिख रहे थे दांत काले
लटकती थी केश चोटी
धूल को खुद पर संभाले

साथ में था एक लड़का
हाथ पकड़े थे उसी ने
झूलता था वस्त्र तन पर
दे दिया होगा किसी ने

पांव का जूता मिला था
करकटों की ढेर से
बहिर्मुख पादांगुलि श्रम
कर रही थी देर से |

तीन वर्षों का वो बालक
चल चुका है चार कोस
सीकर माथे पर छलकते
राख पर ज्यों पड़ी ओस

दी है नानी ने बिदाई
हाथ में रूपए लिए दस
छीन लें बेजां खिलौने
है कहाँ अब इन्हें साहस

और खोईछें में बंधी है
रूपए के संग में चवन्नी
देखती है वह समोसे
काटती है एक कन्नी

सूंघ कर के देखती है
उसे पीछे एक पिल्ली
कुल यही संपत्ति लेकर
जा रही वह स्यात दिल्ली ॥

कहो गौतम - दृश्य ऐसा
देख कर तुम बुद्ध होते
धिक् तुम्हें होता, नहीं यदि
वहां किंचित क्रुद्ध होते

जा के कहते "राय शुद्धोधन !
सुनो तुम मुकुट मेरे शीश धर दो
या कि अपने कोष को
आगार से तुम मुक्त कर दो"

स्वयं बन राजा लुटा देते
धरा धन धाम तुम
देखता यह जगत कितना
हुए थे निष्काम तुम

और पिता अभिषेक यदि
करते नहीं, विद्रोह करते
बुद्ध तुम भी बागियों सा
राज्य के प्रति द्रोह करते


रात में सोये हुए, वामा
तनय को छोड़कर
यूँ नहीं जाते जगत
जीवन से नाता तोड़कर


और जाते भी तो कहते
प्रिया, गोपे ! पास आ
अमावस्या को महल की
खोल रखना अर्गला


जब तुम्हें जंगल में जलती
मशालों का दिखे नर्तन
समझ लेना गर्विणी तब
हो चुका धम्म का प्रवर्तन


स्वयं जैसे बागियों की
एक सेना तुम बनाते
तपः मुद्रा नहीं गौतम
युद्ध की पटुता सिखाते


लूटते तुम राजमहलों में
शमित उस भूति को
या बताते शोषकों को
शमन की अनुभूति को


बाँट देते धन बराबर
दीन को भयमुक्त करते
या कि सत्तासीन धन को
हृदयता से युक्त करते


ये नहीं होता तुम्हारी कीर्ति
अपकीर्ति कहाती
उसी दिन जनवाद का
उपदेश दुनिया मान जाती


और तुम्हारे नाम पर बनते
न मंदिर स्वर्ण वाले
वरन खुल जाते जगत में
निर्धनों के धर्मशाले


पूर्णिमा पर जा, स्तूपों पर
न कोई सर झुकाता
याद कर वह अमावस्या
फिर मशालें जग जलाता


और शोषण मुक्त करने
विश्व को अनुचर तुम्हारे
निकल पड़ते संगठित हो
कोटिशः पथ पर तुम्हारे


हन्त ! तुम यदि एक दिन फिर
भ्रमण पर अपने निकलते
जो कि था तुमने न देखा
देख कर उसको बदलते


पायी तुमने सिद्धि, जिसको
पा मनुज मरता नहीं
पर, तुम्हारी सिद्धि से तो
पेट यह भरता नहीं ?

विश्व के हर प्राणी में
बुद्धत्व की नहीं ज्योति जगती
जानते तुम भी थे,
है सबको यहाँ पर भूख लगती

मुक्ति को किस अर्थ जाने
जन्म भर का जो अकिंचन
जो बुभुक्क्षित हो उसे
इस मुक्ति से कैसा प्रयोजन

जानता मैं हूँ नहीं अमिताभ
तुम क्या मानते थे
पर मुझे लगता है तुम
इस विश्व को कम जानते थे

जगत में रहकर करें संघर्ष
कैसे ये अकिंचन
मुक्ति लेकर क्या करेंगे
चाहिए बस इन्हें भोजन

स्वयं को तो जानना था
जगत को भी जान लेते
संघर्षम् शरणं गच्छामि
मंत्र हम भी मान लेते ।

             -सुशान्त शर्मा।























Friday, 14 August 2015

जागरण गीत
दिवस आज पावन पुनः कह रहा है
मेरे देश जागो , मेरे देश जागो ||

जगो देश के हित जगो जाति के हित
जगो मूल्य मर्याद और ज्ञान के हित
जगो मातृभूमि के सौभाग्य के हित
जगो , प्राणियों के मिटे क्लेश जागो
                          दिवस आज पावन ...

 जगो आज जागें वे वैदिक ऋचाएं
जगे सुप्त सैंधव की वो सभ्यताएं
जगे ज्ञान की ,दान की मान्यताएं
जगो अब मिटे देश से द्वेष जागो
                         दिवस आज पावन ...

जगे शौर्य त्रेता का जग जाए गीता
भरें ज्ञान से सब रहें अब न रीता
जगो फिर से बनवास पाये न सीता
ये है बुद्ध गौतम का उपदेश जागो
                           दिवस आज पावन ...

जगे हल्दीघाटी में सोई कहानी 
वो दीन ए इलाही वही जय भवानी 
वो रानी चेनम्मा वो झाँसी की रानी 
जो साझा ह्रदय का वो परिवेश जागो 
                      दिवस आज पावन ...

जगे सत्य की वो अहिंसा की गाथा 
जगे वीरता की वो बिरसा की गाथा 
जगे भीम का ज्ञान गर्वित वो माथा 
क्षितिज से भी आगे बढे देश जागो 
                     दिवस आज पावन ... 
                                               - सुशांत शर्मा  

Thursday, 13 August 2015

एकांत दीप


गहन निशा में नदिया के तट 

जलता दीप अकेला रे

आ मुझसे बातें करता चल

सुन मांझी अलबेला रे


 सूनी सी पथराई आँखें 

देख रहीं सदियों से राहें 

रह-रह कर मन डर जाता है

अंक न भर लें जलमय बाँहें


आई नहीं क्यूं अब तक मेरे 

 मधुर मिलन की बेला रे 

गहन निशा में नदिया के तट 

 जलता दीप अकेला रे

 

मेरा जलना सार्थक होगा    

जब तू मेरी ओर निहारे  

मरना भी हो जाये मेरा मृदु  

 पलकों की ओट तुम्हारे 


 मन्द पवन की लहरों पर ही 

अब तक मैने खेला रे 

गहन निशा में नदिया के तट 

 जलता दीप अकेला रे 


तन्मय होकर दीप जला है

 ध्येय तुम्हारा पथ उज्ज्वल हो 

कहता है दीपक यह जलकर  

जीवन लौ जैसा निर्मल हो


 कहता है देखो मैने भी

 हँस-हँस कर दुख झेला रे

गहन निशा में नदिया के तट

जलता दीप अकेला रे                                                                                                                                                                                                                                                                       - सुशान्त शर्मा।