गहन निशा में नदिया के तट
जलता दीप अकेला रे
आ मुझसे बातें करता चल
सुन मांझी अलबेला रे
सूनी सी पथराई आँखें
देख रहीं सदियों से राहें
रह-रह कर मन डर जाता है
अंक न भर लें जलमय बाँहें
आई नहीं क्यूं अब तक मेरे
मधुर मिलन की बेला रे
गहन निशा में नदिया के तट
जलता दीप अकेला रे
मेरा जलना सार्थक होगा
जब तू मेरी ओर निहारे
मरना भी हो जाये मेरा मृदु
पलकों की ओट तुम्हारे
मन्द पवन की लहरों पर ही
अब तक मैने खेला रे
गहन निशा में नदिया के तट
जलता दीप अकेला रे
तन्मय होकर दीप जला है
ध्येय तुम्हारा पथ उज्ज्वल हो
कहता है दीपक यह जलकर
जीवन लौ जैसा निर्मल हो
कहता है देखो मैने भी
हँस-हँस कर दुख झेला रे
गहन निशा में नदिया के तट
जलता दीप अकेला रे - सुशान्त शर्मा।
सच में, एक दीपक जो स्वयं प्रकाश का स्रोत है, वह भी अकेलेपन की बेबसी से बच नहीं पाता!
ReplyDeleteBahut hi badhia bhaiyya..:) :)
ReplyDelete